BA Semester-5 Paper-1 Sociology - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 समाजशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2797
आईएसबीएन :0

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समाजशास्त्रीय चिन्तन के अग्रदूत (प्राचीन समाजशास्त्रीय चिन्तन)

प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का सामाजिक व्यवस्था सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।

अथवा
सामाजिक व्यवस्था पर पारसन्स के विचारों को स्पष्ट कीजिये।

उत्तर -

सामाजिक व्यवस्था - श्री पारसन्स का "सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी विचार उनकी प्रख्यात पुस्तक The Social System जो कि 1951 में प्रकाशित हुई थी, में देखने को मिलता है। श्री पारसन्स के अनुसार, "सामाजिक व्यवस्था तब उत्पन्न होती है जबकि एक सामाजिक परिस्थिति में तथा सामान्य रूप में स्वीकृत सांस्कृतिक प्रतीकों की एक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक वैयक्तिक कर्ता अपनी इच्छाओं की आदर्श प्राप्ति के लिए परस्पर सामाजिक अन्तक्रियाओं में लगे होते हैं। श्री पारसन्स ने लिखा है कि "अति सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक व्यवस्था एक ऐसी परिस्थिति में, जिसका कि कम- से-कम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पहलू हो, अपनी इच्छाओं या आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति की प्रवृत्ति से प्रेरित एकाधिक वैयक्तिक कर्ताओं की एक-दूसरे के साथ अन्तः क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होती है और इन अन्तः क्रियाओं में लगे हुए व्यक्तियों का पारस्परिक संबंध तथा उनका उनकी परिस्थितियों के साथ सम्बन्ध सांस्कृतिक रूप में संरचित तथा स्वीकृत प्रतीकों की एक व्यवस्था द्वारा परिभाषित होता है।'

उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि श्री पारसन्स के अनुसार सामाजिक व्यवस्था का निर्माण परस्पर अन्तः क्रिया करते हुए अनेक व्यक्तियों द्वारा होता है। श्री पारसन्स की इस व्याख्या के विश्लेषण में सामाजिक व्यवस्था के कुछ आवश्यक तत्व स्पष्ट होते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-

1. अनेक या एकाधिक वैयक्तिक कर्ता
2. इन कर्ताओं के बीच होने वाली अन्तः क्रियाएँ

3. इन अन्तः क्रियाओं का एक उद्देश्य या लक्ष्य या "इच्छाओं की आदर्श प्राप्ति जो कि इन अन्तः कियाओं के घटित होने के विषय में एक प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करता है।

4. इन अन्तः क्रियाओं के घटित होने के लिए आवश्यक एक सामाजिक परिस्थिति, जिसका कि कम-से-कम भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पक्ष हो।

5. अन्तः क्रियाओं द्वारा उत्पन्न व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बद्ध या उस सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा नियमित व परिभाषित।

वास्तव में, एक सांस्कृतिक व्यवस्था विशेष द्वारा नियमित व परिभाषित होते हुए मानवीय आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति के हेतु सामाजिक परिस्थिति में होने वाली अन्तः क्रियाओं द्वारा उत्पन्न सामाजिक सम्बन्धों के व्यवस्थित प्रतिमान को ही सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। श्री पारसन्स द्वारा प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के पाँच प्रमुख तत्वों का उल्लेख किया जा चुका है। इन पाँच तत्वों में से कुछ तत्वों को एक साथ मिलाकर इस व्यवस्था के तत्वों की संख्या तीन भी की जा सकती है 1. वैयक्तिक कर्ता, 2. अन्तः क्रियात्मक व्यवस्था, 3. सांस्कृतिक प्रतिमान की एक व्यवस्था।

श्री पारसन्स ने लिखा है कि सामाजिक व्यवस्थाओं और व्यक्तियों के बीच कोई सीधा सादा सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए यह कहना कठिन है कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ क्या हैं। सामाजिक व्यवस्था की क्रियाशीलता के दृष्टिकोण से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि इसके अन्तर्गत न तो अंश ग्रहण करने वाले सभी कर्ताओं की आवश्यकताएँ और न ही किसी एक कर्ता की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, बल्कि अधिकतर कर्ताओं की अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव होती है। साधारणतया यह देखा गया है कि कुछ सामाजिक शक्तियाँ कतिपय व्यक्तियों को और सभी लोगों की कुछ आवश्यकताओं को हानि पहुँचाने या उन्हें विनष्ट करने के विषय में प्रत्यक्षतः उत्तरदायी होती हैं। यह हो सकता है कि इन सम्भावनाओं को कम किया जा सके, परन्तु व्यावहारिक रूप में उन्हें पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। उदाहरण कुछ लोगों के प्राणों की भेंट चढ़ाए बिना युद्ध में विजय कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती और कभी-कभी एक विशिष्ट व्यवस्था के रूप में एक सामाजिक व्यवस्था का अस्तित्व इसी शर्त पर निर्भर करता है कि युद्ध को स्वीकार कर लिया जाए। इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा के अन्तर्गत कतिपय विनाशकारी शक्तियों को भी सामाजिक व्यवस्था का ही एक आवश्यक अंग या एक न टाला जा सकने वाला तत्व मान लिया जाए। हाँ, इन्हें निकालकर एक जड़वत् व काल्पनिक समाज व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है, क्रियाशील व वास्तविक सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए ये शक्तियाँ भी एक पूर्वपेक्षित या आवश्यक शर्त है।

समाज या सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि वैयक्तिक जीवन का अस्तित्व बना रहे और वैयक्तिक जीवन के अस्तित्व के बने रहने के लिए यह अनिवार्य है कि भोजन, शारीरिक सुरक्षा आदि मानव की प्राथमिक या आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। अतः सामाजिक व्यवस्था की स्थिरता के लिए यह आवश्यक है, वह अपना अनुकूलन इन आवश्यकताओं से करे। यदि सामाजिक व्यवस्था ऐसा करने में असफल होती है तो उसकी अपनी एक प्रतिक्रिया होगी और वह इस रूप में कि व्यक्तियों में या वैयक्तिक कर्ताओं या समूहों में विनाशकारी या समाज विरोधी प्रवृत्तियों, आचरणों या व्यवहारों का विकास होगा क्योंकि उचित या वैध तरीकों से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर वे अनुचित या अवैध उपायों को अपनाने की ओर स्वतः ही प्रवृत्त होंगे। जिसके फलस्वरूप सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक अवस्था समाप्त हो जाएगी और सामाजिक व्यवस्था के विघटित होने का डर रहेगा। अतः सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व व स्थिरता के लिए एक आवश्यक शर्त यह है कि समाज के अधिकाधिक कर्ताओं की न्यूनतम आवश्यकओं की पूर्ति करके उन्हें क्रियाशील रहने के लिए प्रेरित किया जाए जिससे कि वे पर्याप्त मात्रा में सामाजिक क्रियाओं में अंश ग्रहण करते रहें।

श्री पारसन्स ने लिखा है कि विनाशकारी या समाज विरोधी प्रवृत्तियों पर रोक लगाने के लिए सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत सामाजिक नियंत्रण के एकाधिक साधन होते हैं। सामाजिक नियंत्रण का उद्देश्य समाज में अन्तः क्रियाशील प्रतिक्रियाओं के बीच दृढ़ संतुलन को बनाए रखना है। श्री पारसन्स के अनुसार, "सामाजिक नियंत्रण के आधारभूत साधन संस्थागत रूप में संगठित एक समाज व्यवस्था की स्वाभाविक अन्तः क्रिया में पाए जाते हैं। इस दृष्टिकोण से सामाजिक नियंत्रण के साधन भी सामाजिक व्यवस्था का एक अंग है। अपनी आवश्यकताओं या इच्छाओं की पूर्ति के लिए जो अन्तः क्रिया वैयक्तिक कर्ताओं को आपस में करनी पड़ती है, उस अन्तः क्रिया के दौरान में अन्तः क्रिया करने वाले कर्ताओं के विचार, भावनाएँ तथा मनोवृत्तियाँ बहुत स्पष्ट हो जाती हैं और उनमें से कुछ अधिकतर लोगों के द्वारा स्वीकृत या योग्य भी हो जाती हैं। यही सामाजिक संस्थाओं का रूप धारण कर लेती हैं जिनके द्वारा सामाजिक नियंत्रण करने का कार्य भी होता है। ये सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था के आवश्यक व महत्वपूर्ण तत्व हैं। श्री पारसन्स का कथन है कि सामाजिक संस्थाओं का एक प्रमुख व प्राथमिक कार्य वैयक्तिक कर्ताओं द्वारा किए जाने वाली विविध क्रियाओं और उनके सम्बन्धों को सुव्यवस्थित करने में सहायता करना है ताकि वे एक पर्याप्त समन्वित व्यवस्था का निर्माण करें जो कि कर्ता को कार्य करने में सहायक हो और सामाजिक स्तर पर संघर्ष भी कम हो। ऐसी स्थिति में ही सामाजिक व्यवस्था स्वस्थ रूप में पनपती व विकसित होती रहती है।

सामाजिक व्यवस्था से सम्बन्धित तीन प्रकार की संस्थाओं का उल्लेख श्री पारसन्स ने किया है- 

1. सम्बन्धात्मक संस्थाएँ-

(i) कर्ता-इकाइयों का श्रेणी विभाजक वितरण तथा विभेद, संक्षेप में सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत कर्ता इकाइयों का पद। इन कर्ता इकाइयों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

(अ) वैयक्तिक
( ब ) सामूहिक।

(ii) कर्ता-इकाइयों के कार्यों की श्रेणियाँ तथा सामाजिक व्यवस्था में उनका वितरण। इस आधार पर भी दो श्रेणियाँ होती हैं-

(अ) वैयक्तिक कर्ताओं के कार्य
(ब) सामूहिक कर्ताओं के कार्य !

2. नियामक संस्थाएँ-

(i) साधन-सम्बन्धों का नियमन, सुविधाओं का वर्गीकरण तथा वितरण एवं शक्ति-व्यवस्था का संगठन।

(ii) अभिव्यक्त सम्बन्धों का नियमन, पुरस्कारों का वर्गीकरण तथा वितरण एवं पुरस्कार व्यवस्था का संगठन।

3. सांस्कृतिक संस्थाएँ -

(1) सांस्कृतिक व्यवस्था, आदर्श, मूल्य, धार्मिक विश्वास, प्रतीक व्यवस्थाओं आदि का संगठन।

सामाजिक व्यवस्था के संरचनात्मक तत्वों में श्री पारसन्स ने चार तत्वों का उल्लेख किया है- 

1. नातेदारी व्यवस्था - सामाजिक व्यवस्था के प्रथम संरचनात्मक तत्व नातेदारी व्यवस्था का अपना एक महत्व है। "नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे सम्बन्ध आ सकते हैं जो कि अनुमानित और रक्त सम्बन्धों पर आधारित हों। वास्तव में नातेदारी व्यवस्था वह विशिष्ट तथा समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सुव्यवस्थित सम्बन्ध - श्रृंखला है जो कि एक सामाजिक प्राणी को अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त करती है। नातेदारी व्यवस्था के दो प्रमुख अंग हैं विवाह सम्बन्धी नातेदारी, रक्त सम्बन्धी नातेदारी।

2. सामाजिक स्तरीकरण - स्तरीकरण समाज की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज में अनेक विभिन्न आधारों पर कुछ व्यक्तियों या समूहों को उच्च पद या स्थिति प्राप्त होती है तो कुछ को निम्न। इसी से यह स्पष्ट है कि सामाजिक व्यवस्था में इस स्तरीकरण का अपना महत्व है क्योंकि इसके द्वारा प्रथमतः वैयक्तिक कर्ताओं या सामूहिक कर्ताओं में पदों और उनसे सम्बन्धित कार्यों और कर्तव्यों का विभाजन हो जाता है और द्वितीयतः उन पदों और कार्यों के आधार पर कर्ताओं के पारस्परिक सम्बन्ध भी सुनिश्चित व नियमित हो जाते हैं। ये दोनों ही अवस्थाएँ सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था की एक तीसरी विशेषता यह होती है कि स्तरीकरण के सन्दर्भ में समाज कुछ अलग-अलग तरह के पुरस्कारों को निश्चित करता है जो अलग-अलग स्थिति या पद से सम्बन्धित व्यक्तियों या समूहों को दिए जा सकें। वे पुरस्कार तीन प्रकार के होते हैं- (अ) प्रथम प्रकार के अन्तर्गत वे वस्तुएँ हैं जो मनुष्यों के पोषण तथा आराम में सहायक हैं, इन्हें आर्थिक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहा जाता है। (ब) दूसरे प्रकार के अन्तर्गत वे वस्तुएँ हैं जिनका सम्बन्ध मनोरंजन से है, इन्हें आत्म- प्रेरणाएँ या सौन्दर्यात्मक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहा जाता है। (स) तीसरे प्रकार के अन्तर्गत वे पुरस्कार आते हैं जिनसे आत्म-सम्मान तथा 'अहम्' का विकास होता है, इन्हें प्रतीकात्मक प्रेरणाएँ या पुरस्कार कहते हैं।

3. शक्ति-व्यवस्था - सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले वैयक्तिक तथा सामूहिक कर्ताओं के व्यवहारों तथा आचरणों को नियमित तथा नियंत्रित रहने के लिए शक्ति-व्यवस्था की भी आवश्यकता होती है। इस शक्ति-व्यवस्था में शारीरिक शक्ति का भी समावेश होता है। सामाजिक व्यवस्था में एक कर्ता की शक्ति दूसरे कर्ता की शक्ति के संदर्भ में सापेक्षिक होती है, साथ ही शक्ति के आधार पर कूट उत्पन्न करने वाले संघर्षो का जन्म हो सकता है परन्तु शक्ति-व्यवस्था के आधार पर सामाजिक व्यवस्था में विघटन उत्पन्न करने वाले तत्वों या प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है।

4. धर्म तथा मूल्य संगठन -  धर्म, समूह के मूल्यों और मान्यताओं की रक्षा करता है, तथा समाज को वह नैतिक सूत्र प्रदान करता है जो कि समाज के विभिन्न कर्ताओं को परस्पर एक साथ बाँधता है। उसी प्रकार सामाजिक मूल्य वे सामाजिक आदर्श हैं जो हमारे लिए कुछ अर्थ रखते हैं और जिन्हें हम जीवन के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इन्हीं मूल्यों के आधार पर विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों तथा विषयों का मूल्यांकन किया जाता है। इन्हीं मूल्यों के आधार पर कर्ताओं की मनोवृत्तियाँ पनपती हैं और ये मनोवृत्तियाँ कर्ता की उन क्रियाओं को प्रभावित करती हैं जिनके कारण सामाजिक व्यवस्था में क्रियाशीलता व स्थिरता उत्पन्न होती है। सामाजिक व्यवस्था में विघटन उत्पन्न करने वाले तत्वों का न पनपना इस बात पर निर्भर करता है कि विभिन्न कर्ताओं के मूल्यों में अधिक भिन्नता व उसके फलस्वरूप मूल्यों में अधिक संघर्ष की सम्भावनाएँ न हों।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में सोलहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के वैज्ञानिक चिन्तन के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति क्या है? इसके प्रमुख प्रभाव बताइए।
  5. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के प्रमुख प्रभाव बताइए।
  6. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के सामाजिक प्रभाव बताइये।
  7. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के आर्थिक प्रभाव बताइए।
  8. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या अच्छे प्रभाव हुए।
  9. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप समाज व अर्थव्यवस्था पर क्या बुरे प्रभाव हुए।
  10. प्रश्न- राजनीतिक व्यवस्था से क्या आशय है? भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  11. प्रश्न- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के निर्धारक तत्वों को बताइए।
  12. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्तियों ने कैसे समाजशास्त्र की आधारशिला एक स्वतन्त्र अध्ययन के रूप में रखी? विवेचना कीजिए।
  13. प्रश्न- औद्योगिक क्रान्ति के क्या सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हुये?
  14. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के उद्भव एवं विकास को संक्षेप में समझाइये।
  15. प्रश्न- ज्ञानोदय से आप क्या समझते हैं। वैज्ञानिक पद्धति की प्रकृति और सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञाकि पद्धति के प्रयोग का वर्णन कीजिए।
  16. प्रश्न- "समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है।" विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति से आप क्या समझते हैं?
  18. प्रश्न- समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिये।
  19. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र का महत्व बताइये।
  20. प्रश्न- कॉम्ट के प्रत्यक्षवाद की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- कॉम्टे द्वारा प्रतिपादित चिन्तन की तीन अवस्थाओं के नियम की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
  22. प्रश्न- कॉम्टे की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिये।
  23. प्रश्न- अगस्त कॉम्ट का जीवन परिचय दीजिए।
  24. प्रश्न- कॉम्ट के मानवता के धर्म का नैतिकता आधार क्या है?
  25. प्रश्न- संस्तरण के आधार अथवा सिद्धान्त बताइये।
  26. प्रश्न- समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवादी पद्धतिशास्त्र की मुख्य विशेषतायें कौन-कौन सी हैं?
  27. प्रश्न- कॉम्ट के विज्ञानों का वर्गीकरण प्रत्यक्षवाद से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  28. प्रश्न- कॉम्ट की प्रमुख देन की परीक्षा कीजिए।
  29. प्रश्न- प्रत्यक्षवाद क्या है?
  30. प्रश्न- कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद को परिभाषित कीजिये।
  31. प्रश्न- तात्विक अवस्था क्या है?
  32. प्रश्न- सामाजिक डार्विनवाद से आपका क्या तात्पर्य है?
  33. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक उद्विकास' के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  34. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर का जीवन परिचय दीजिए।
  35. प्रश्न- हरबर्ट स्पेन्सर के 'सामाजिक नियन्त्रण के साधन' सम्बन्धी विचार बताइए।
  36. प्रश्न- स्पेन्सर द्वारा प्रतिपादित सावयवी सिद्धान्त की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  37. प्रश्न- समाजशास्त्र के क्षेत्र में हरबर्ट स्पेन्सर के योगदान का उल्लेख कीजिए।
  38. प्रश्न- अधिसावयव उद्विकास की अवधारणा पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- दुर्खीम के सामाजिक एकता के सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  40. प्रश्न- यान्त्रिक व सावयवी एकता से सम्बन्धित वैधानिक व्यवस्थाएं क्या हैं?
  41. प्रश्न- दुर्खीम के श्रम विभाजन सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को समझाइए।
  43. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में दुर्खीम का योगदान बताइए।
  44. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त की आलोचनात्मक जाँच कीजिए।
  45. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा वर्णित आत्महत्या के प्रकारों की विवेचना कीजिए।
  46. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- 'आत्महत्या सामाजिक कारकों की उपज है न कि वैयक्तिक कारकों की। दुर्खीम के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  48. प्रश्न- दुखींम का समाजशास्त्रीय योगदान बताइये।
  49. प्रश्न- दुखींम ने समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को समृद्ध बनाया, व्याख्या कीजिए।
  50. प्रश्न- दुर्खीम की कृतियाँ कौन-कौन सी हैं? स्पष्ट कीजिए।
  51. प्रश्न- इमाइल दुर्खीम के जीवन-चित्रण तथा प्रमुख कृतियों पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- कॉम्ट तथा दुखींम की देन की तुलना कीजिए।
  53. प्रश्न- श्रम विभाजन समझाइये।
  54. प्रश्न- दुर्खीम ने यान्त्रिक तथा सावयवी एकता में अन्तर किस प्रकार किया है?
  55. प्रश्न- श्रम विभाजन के कारण बताइए।
  56. प्रश्न- दुखींम के अनुसार श्रम विभाजन के कौन-कौन से परिणाम घटित हुए? स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- दुर्खीम के पद्धतिशास्त्र की विशेषताएँ लिखिए।
  58. प्रश्न- श्रम विभाजन, सावयवी एकता से किस प्रकार सम्बन्धित है?
  59. प्रश्न- यान्त्रिक संश्लिष्टता तथा सावयविक संश्लिष्टता के बीच अन्तर कीजिए।
  60. प्रश्न- दुर्खीम के सामूहिक प्रतिनिधान के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  61. प्रश्न- दुर्खीम का पद्धतिशास्त्र पूर्णतया समाजशास्त्री है। विवेचना कीजिए।
  62. प्रश्न- सामाजिक एकता क्या है?
  63. प्रश्न- आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  64. प्रश्न- अहम्वादी आत्महत्या के सम्बन्ध में दुर्खीम के विचारों की विवेचना कीजिए।
  65. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या के कारणों की विवेचना कीजिए।
  66. प्रश्न- सामाजिक एकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  67. प्रश्न- सामाजिक तथ्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित 'समाजशास्त्रीय पद्धति' के नियम क्या हैं?
  69. प्रश्न- दुखींम की सामाजिक चेतना की अवधारणा का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
  70. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा क्या है?
  71. प्रश्न- परेटो के अनुसार समाजशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
  72. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- पैरेटो ने समाजशास्त्र को एक तार्किक प्रयोगात्मक विज्ञान नाम क्यों दिया? उनकी तार्किक प्रयोगात्मक पद्धति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- विशिष्ट चालक की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  75. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  76. प्रश्न- "इतिहास कुलीन तन्त्र का कब्रिस्तान है।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
  77. प्रश्न- पैरेटो की तार्किक एवं अतार्किक क्रियाओं की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- विलफ्रेडो परेटो की प्रमुख कृतियों के साथ संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  79. प्रश्न- विशिष्ट चालक का महत्व बताइए।
  80. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क का वर्गीकरण कीजिए।
  81. प्रश्न- परेटो का समाजशास्त्र में योगदान संक्षेप में बताइए।
  82. प्रश्न- तार्किक और अतार्किक क्रिया की तुलना कीजिए।
  83. प्रश्न- पैरेटो के अनुसार शासकीय तथा अशासकीय अभिजात वर्ग की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
  84. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के 'ऐतिहासिक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं?
  85. प्रश्न- मार्क्सवादी सामाजिक परिवर्तन की धारणा क्या है? समझाइए।
  86. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  87. प्रश्न- मार्क्स के विचारों में समाज में वर्गों का जन्म कब और क्यों हुआ?
  88. प्रश्न- मार्क्स ने वर्गों की सार्वभौमिक प्रकृति को कैसे स्पष्ट किया है?
  89. प्रश्न- पूर्व में विद्यमान वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने क्या जोड़ा?
  90. प्रश्न- मार्क्स ने 'वर्ग संघर्ष' की अवधारणा को किस अर्थ में प्रयुक्त किया?
  91. प्रश्न- मार्क्स के वर्ग संघर्ष के विवेचन में प्रमुख कमियाँ क्या रही हैं?
  92. प्रश्न- वर्ग और वर्ग संघर्ष की विवेचना कीजिए।
  93. प्रश्न- पूँजीवादी समाज में अलगाव की स्थिति तथा इसके कारकों की विवेचना कीजिए।
  94. प्रश्न- संक्षेप में अलगाव के स्वरूपों को समझाइये।
  95. प्रश्न- मार्क्स ने पूँजीवाद की प्रकृति के विनाश के किन कारणों का उल्लेख किया है?
  96. प्रश्न- पूँजीवाद में ही वर्ग संघर्ष अपने चरम सीमा पर क्यों पहुँचा?
  97. प्रश्न- मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
  98. प्रश्न- 'कार्ल मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  100. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक युगों के विभाजन को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  102. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिये।
  103. प्रश्न- समाजशास्त्र को मार्क्स का क्या योगदान मिला?
  104. प्रश्न- मार्क्स ने समाजवाद को क्या योगदान दिया?
  105. प्रश्न- साम्यवादी समाज के निर्माण के लिये मार्क्स ने क्या कार्य पद्धति सुझाई?
  106. प्रश्न- मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या किस तरह से की?
  107. प्रश्न- मार्क्स की सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में प्रमुख कमियाँ क्या रहीं?
  108. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के बारे में मार्क्स के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  109. प्रश्न- कार्ल मार्क्स का संक्षिप्त जीवन-परिचय तथा प्रमुख कृतियों का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  111. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताएँ बताइये।
  112. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  113. प्रश्न- वर्ग को लेनिन ने किस तरह से परिभाषित किया?
  114. प्रश्न- आदिम साम्यवादी युग में वर्ग और श्रम विभाजन का कौन सा स्वरूप पाया जाता था?
  115. प्रश्न- दासत्व युग में वर्ग व्यवस्था की व्याख्या कीजिए।
  116. प्रश्न- सामंती समाज में वर्ग व्यवस्था का कौन-सा स्वरूप पाया जाता था?
  117. प्रश्न- फ्रांस की क्रान्ति के महत्व एवं परिणामों की विवेचना कीजिए।
  118. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के इतिहास दर्शन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  119. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के अनुसार वर्ग की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  120. प्रश्न- मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग संघर्ष के कारणों की विवेचना कीजिए।
  121. प्रश्न- समाजशास्त्र के संघर्ष सम्प्रदाय में मार्क्स और डेहरनडार्फ की तुलना कीजिए।
  122. प्रश्न- मार्क्स के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
  123. प्रश्न- "हीगल ने 'आत्म-चेतना' के अलगाव की चर्चा की है जबकि मार्क्स ने श्रम के अलगाव की।" स्पष्ट कीजिए।
  124. प्रश्न- मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  125. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के आवश्यक लक्षणों की आलोचनात्मक परीक्षा कीजिए।
  126. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  127. प्रश्न- सर्वहारा क्रान्ति की विशेषताएँ बताइये।
  128. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार अलगाववाद के लिए उत्तरदायी कारकों पर प्रकाश डालिए।
  129. प्रश्न- मार्क्स का आर्थिक निश्चयवाद का सिद्धान्त बताइये। 'सामाजिक परिवर्तन' के लिए इसकी सार्थकता बताइए।
  130. प्रश्न- सत्ता की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सत्ता कितने प्रकार की होती है?
  131. प्रश्न- मैक्स वेबर द्वारा वर्णित सत्ता के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
  132. प्रश्न- मैक्स वेबर के अनुसार समाजशास्त्र को परिभाषित कीजिए।
  133. प्रश्न- वेबर के धर्म का समाजशास्त्र क्या है? बताइए।
  134. प्रश्न- आदर्श प्रारूप की धारणा का वर्णन कीजिए।
  135. प्रश्न- मैक्स वेबर के "पूँजीवाद की आत्मा' सम्बन्धी विचारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिये।
  136. प्रश्न- वेबर के समाजशास्त्र में योगदान पर एक लेख लिखिये।
  137. प्रश्न- मैक्स वेबर का संक्षिप्त जीवन-परिचय दीजिए।
  138. प्रश्न- मैक्स वेबर की धर्म के समाजशास्त्र की कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं? स्पष्ट करें।
  139. प्रश्न- मैक्स वेबर की प्रमुख रचनाएँ बताइए।
  140. प्रश्न- मैक्स वेबर का पद्धतिशास्त्र क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
  141. प्रश्न- वेबर का धर्म का सिद्धान्त क्या है?
  142. प्रश्न- मैक्स वेबर के आदर्श प्रारूप पर टिप्पणी लिखिए।
  143. प्रश्न- प्रोटेस्टेण्ट आचार क्या है? व्याख्या कीजिए।
  144. प्रश्न- मैक्स वेबर के सामाजिक क्रिया सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  145. प्रश्न- सामाजिक विचार के सन्दर्भ में मैक्स वेबर के योगदान का परीक्षण कीजिए।
  146. प्रश्न- शक्ति की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  147. प्रश्न- दुर्खीम एवं वेबर के धर्म के सिद्धान्त की तुलना आप किस तरह करेंगें?
  148. प्रश्न- सामाजिक विज्ञान की पद्धति के निर्माण में मैक्स वेबर के योगदान का वर्णन कीजिए।
  149. प्रश्न- वेबर द्वारा प्रस्तुत 'सामाजिक क्रिया' के वर्गीकरण का परीक्षण कीजिए।
  150. प्रश्न- अन्तः क्रिया का क्या अर्थ है? अन्तःक्रिया के प्रकारों का उल्लेख करिये।
  151. प्रश्न- प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद क्या है? प्रतीकात्मक अन्तर्क्रियावादी सिद्धान्त की मान्यताएँ समझाइये।
  152. प्रश्न- जार्ज हरबर्ट मीड का प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावाद बतलाइये।
  153. प्रश्न- मीड का भूमिका ग्रहण का सिद्धान्त समझाइये।
  154. प्रश्न- प्रतीकात्मक का क्या अर्थ है?
  155. प्रश्न- प्रतीकात्मकवाद की विशेषताएँ बताइये।
  156. प्रश्न- प्रतीकों के भेद या प्रकार बताइये।
  157. प्रश्न- सामाजिक जीवन में प्रतीकों का क्या महत्व है?
  158. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी कृतियों का उल्लेख कीजिये।
  159. प्रश्न- टालकाट पारसन्स का "सामाजिक क्रिया" का सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिये।
  160. प्रश्न- टालकॉट पारसन्स का सामाजिक व्यवस्था सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  161. प्रश्न- आर. के. मर्टन का संक्षिप्त जीवन परिचय व रचनाएँ लिखिए।
  162. प्रश्न- आर. के. मर्टन की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  163. प्रश्न- आर. के. मर्टन की बौद्धिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  164. प्रश्न- मध्य-अभिसीमा सिद्धान्त का अर्थ व प्रकृति को समझाइये।
  165. प्रश्न- आर. के. मर्टन का "प्रकट एवं अव्यक्त कार्य सिद्धान्त को समझाइये।
  166. प्रश्न- टॉलकाट पारसन्स के पैटर्न वैरियबल की चर्चा कीजिये।

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